भीड़ को लेकर अलग-अलग नजरिया क्यों ?

कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए इस बार भी कावड़ यात्रा नहीं होगी। हालांकि, उत्तर-प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार चाहती थी कि कोविड नियमों के आधार पर कावड़ यात्रा हो, पर इस पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतराज जातते हुए इसकी अनुमति नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक बात पूरी तरह से साफ है कि हम कोविड के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार को कांवड़ यात्रा में लोगों की 100 फीसदी उपस्थिति के साथ इसे आयोजित करने की इजाजत नहीं दे सकते। हम सभी भारत के नागरिक हैं। यह मामला स्वत: संज्ञान इसलिए लिया गया है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-21 हम सभी पर लागू होता है। यह हम सभी की सुरक्षा के लिए है। 



इसी के मद्देनजर कावड़ संघों से बातचीत के बाद उत्तर-प्रदेश की योगी सरकार ने भी कावड़ यात्रा को रद्द करने का फैसला लिया है। कोरोना संक्रमण के चलते निश्चित ही भीड़भाड़ काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है, क्योंकि कोरोना की तीसरी लहर का खतरा लगातार बना हुआ है। चाहे यात्रा को आयोजित करने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का ऐतराज हो या फिर इसके बाद यूपी सरकार का यात्रा को रद्द करने का फैसला, यह उचित ही कहा जाएगा। पर यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि आखिरकार, कांवड यात्रा पर ही ऐतराज क्यों ? क्या इसी तरह दूसरे आयोजन भी नहीं रोके जाने चाहिए ? ऐसे भीड़भाड़ वाले आयोजनों में हमने किसान आंदोलन को भी देखा। जब देश में कोरोना की दूसरी लहर पीक पर थी तो किसान देश की राजधानी दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे, जिसमें हजारों की संख्या में किसान जुटे हुए थे। किसान आंदोलन के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का कोई भी पालन नहीं किया गया। किसान आंदोलन अभी भी खत्म नहीं हुआ है। तो कोरोना महामारी को देखते हुए किसान आंदोलन को जारी रखने पर ऐतराज नहीं जताया जाना चाहिए ? इसके अलावा हमने पश्चिम बंगाल का चुनाव भी देखा है और यूपी में पंचायत चुनाव भी हुए हैं, जिसमें निश्चित ही लोगों की काफी भीड़ जुटी। अगर, हम अपनी सुरक्षा को लेकर इतने ही गंभीर हैं तो फिर अन्य बड़े आयोजनों पर रोक क्यों नहीं लगाई जाती ? यहां विरोध सिर्फ कावड़ यात्रा को रोकने का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि भीड़ को लेकर दो अलग-अलग तरह का नजरिया क्यों ?



यह सवाल केवल भारत के ही संबंध में नहीं है, बल्कि हमने देखा है कि विदेशों में भी खेलों के साथ-साथ अन्य कार्यक्रमों के भी बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं। कहीं भी कोविड प्रोटोकॉल को नहीं माना जा रहा है। खुलेआम सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। यह स्थिति तब है, जब अभी-अभी कोरोना महामारी के दौरान दुनियाभर में लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाईं है। दूसरी लहर का प्रकोप कम हो गया है, यह हम सबके लिए राहत की बात है, लेकिन जिस तरह तीसरी लहर का खतरा मंडरा रहा है, कम-से-कम उसको देखते हुए तो गंभीरता बरतनी ही चाहिए। क्या अदालतों को इस संबंध में संज्ञान नहीं लेना चाहिए ? आखिरकार भीड़ तो भीड़ है। चाहे वह कांवड यात्रा के लिए जुटे, किसान आंदोलन में जुटे या फिर चुनावों में जुटे। हमने अभी देखा कि कुंभ को लेकर बहुत सारे सवाल खड़े किए गए। प्रधानमंत्री को कुंभ आयोजन को सीमित करने की अपील करनी पड़ी थी, लेकिन इसी दौरान बंगाल में चुनाव हो रहे थे, तो ऐसे में क्या चुनावों को लेकर अपील नहीं की जानी चाहिए थी ? तो क्या इन परिस्थितियों में ऐसा नहीं माना जा सकता है कि राजनीति के तराजू में आस्था की कोई कीमत नहीं, केवल इसका महत्व सिर्फ वोट की राजनीति के लिए है। जब हम भारत में धर्म-समुदाय की बात करते हैं, निश्चित ही वहां आस्था का भी एक अलग स्थान होता है। इसीलिए, बाबा भोलेनाथ के भक्तों को यह सुनकर मायूसी जरूर होगी कि वे इस बार भी बाबा भोलेनाथ का गंगाजल से अभिषेक नहीं कर पाएंगे। 

शायद, उन्हें इसी बात को लेकर मायूसी नहीं होगी, बल्कि भीड़ को लेकर अलग-अलग नजरिया रखने के प्रति भी होगी। लिहाजा, कोरोना की तीसरी लहर के खतरे को देखते हुए ऐसे दूसरे आयोजनों पर भी रोक लगा देनी चाहिए। हम सबने देखा कि महामारी की पहली लहर के बाद जिस तरह लापरवाहियां दिखीं, उसके चलते दूसरी लहर का भयावह असर देखने को मिला। निश्चित ही, यह पहल अच्छी है कि फिलहाल, हमें भीड़-भाड़ से बचना ही चाहिए। कहते हैं ना-जान है तो जहान है, लिहाजा अगर हम सब सुरक्षित रहेंगे तो ऐसे आस्था के आयोजन और आंदोलन बाद में भी किए जा सकते हैं। यह जिम्मेदारी न्यायालय और सरकारों की तो है ही स्वयं लोगों की भी है। अगर, सरकार और न्यायालय किसी आयोजन पर रोक लगा रहे हैं तो इस कैटेगिरी में कुछ ही आयोजन नहीं बल्कि भीड़ वाले सभी आयोजन आने चाहिए, तभी हम ईमानदारी से कोरोना पर विजय पाने में सफल हो पाएंगे।


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